Thursday, March 16, 2017

अपनी वृद्धावस्था की अभी से तैयारी कर लें, अन्यथा नयी पीढ़ी को निष्ठुर और संस्कारविहीन कहकर कोसने का कोई हक नहीं होगा।

*अपनी वृद्धावस्था की अभी से तैयारी कर लें, अन्यथा नयी पीढ़ी को निष्ठुर और संस्कारविहीन कहकर कोसने का कोई हक नहीं होगा।*
*सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'*

पहले जब शिक्षा और सरकारी नौकरी नहीं थी तो बहु-बेटे अपने माता-पिता और दादा-दादी सहित सभी वृद्ध या अस्वस्थ रिश्तेदारों की तीमारदारी और सेवा-सुश्रुषा करने में पीछे नहीं रहते थे। दुःखद और कड़वा सच कि जैसे-जैसे लोगों के पास धन, ओहदा और सम्पन्नता आ गयी, सेवा और संवेदना नदारद हो गयी। धर्मिकता और समाज सेवा का चोला ओढ़े रहने वाले भी निष्ठुर और निर्मोही हो रहे हैं। भावनाएं तथा संवेदनाएं मर रही हैं।

मैंने अनेकों बार इस दारुण पीड़ा को महसूस किया है। अपनी आँखों से देखा है, जब अपने आलीशान बंगलों और सुख-सुविधाओं के साथ-साथ मंदिरों, यज्ञों और भागवत कथाओं में हजारों-लाखों रुपये खर्च करने वाले या नया मंदिर बनवाने की पहल करने वाले लोगों के माता-पिता या उनकी बहन-भुआ वर्षों तक उचित उपचार और समुचित देखभाल के लिये तरसते हुए तथा तड़पते हुए बेमौत मर जाते हैं। मौत के बाद स्वादिष्ट भोजन और पकवान बनवा कर उनका नुक्ता (मृत्युभोज) किया जाता है। मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए गरुड़ पुराण का पाठ करवाकर स्थानीय बामणों को दान दिया जाता है। कार-जीप में दर्जनों रिश्तेदारों के साथ पहुंचकर गंगाजी में जाकर अस्थियां प्रवाहित करवाने की एवज में पंडाओं को दान-दक्षिणा दी जाती हैं। 

इन सारे क्रिया-कर्मों में जितना धन खर्चा जाता है, यदि वही धन, श्रम और समय, असमय और बेमौत मौत के शिकार मृतक के जीवन में उनकी सेवा तथा उपचार में खर्च किया जाये तो सम्भव है कि उनकी दर्दनाक मौत नहीं हो और अधिक सम्भावना है कि वे कुछ समय तक और स्वस्थ-ज़िंदा रह सकें।

जिन दादा-दादी और माता-पिता ने हमको निर्मित किया है, हमको परिवरिश दी, अभाव सहकर, कर्जा लेकर हमें शिक्षा दिलवाई और समर्थ बनाया उनकी अनदेखी करके, स्वनिर्मित भगवानों की पूजा या मंदिरों का निर्माण किस तरह से समाज और मानवता के उत्थान में सहायक होता होगा, मेरी समझ से परे है?

मुझे समझ में नहीं आता कि खुद को शिक्षित मानने वाले 21वीं सदी के विकसित मनुष्य कहलाने वाले हम लोग किस तरह के रिश्तों और कैसी धार्मिक संस्कृति को, किसलिए ढो रहे हैं? हम किन संस्कारों को नयी पीढ़ी को सम्प्रेषित कर रहे हैं? क्या हमारी भावनाएं और संवेदनाएं मर चुकी हैं या हमारे अवचेतन मन पर --*"स्वर्ग की आकांक्षा और नर्क का भय"* इस कदर काबिज है कि हमें केवल कपोल-कल्पित कथित धर्म-ग्रन्थ ही अपनी मुक्ति का मार्ग समझ में आते हैं? इन ग्रंथों में माता-पिता और दुखियों की सेवा के जो अनुदेश हैं, उनकी अनदेखी करते हुए हमें --*"नर्क का भय क्यों नहीं सताता?"*

जो लोग धर्म-ग्रंथों-मंदिरों के प्रचार को सामाजिक एकता के नाम पर स्वर्ग तथा राजनीति की सीढ़ी बनाने का आत्मघाती खेल, खेलने में व्यस्त हैं, उनके सभी कृत्यों पर, उनके अपने बेटा-बेटियों तथा पोता-पोतियों की पैनी नजर है। अपनी वृद्धावस्था की अभी से तैयारी कर लें, अन्यथा बाद में अपने आपको कोसते हुए और पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए तड़प-तड़प कर मरना पड़े तो नयी पीढ़ी को *निष्ठुर और संस्कारविहीन कहकर कोसने का कोई हक नहीं होगा।*
सेवासुत-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111, 16.03.17, 04.58

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