Sunday, April 16, 2017

अपनों की अनदेखी के शिकार वृद्ध-पिता का सच्चा उदाहरण

*अपनों की अनदेखी के शिकार वृद्ध-पिता का सच्चा उदाहरण*

एक पिता के 4 बेटे। बड़े बेटे को किशोरावस्था में ही खेती के काम पर लगा दिया। घर-परिवार की समस्त जिम्मेदारी उसके माथे मढ़ दी गयी। उसे पता ही नहीं चला वह कब युवा से अधेड़ हो गया? उसकी आँखे तब खुली जब उसके तीनों छोटे भाई अफसर बनकर पिता की जमीन बंटाने को तत्पर हो गए। पिता ने अफसरों की बात का खुलकर समर्थन किया। बड़े बेटे के बच्चे विवाह योग्य हो गए। उसकी जिंदगी के 40 साल सम्पूर्ण परिवार की देखभाल और छोटे भाइयों को पढ़ाने में निकल गयी। बचत के नाम पर उसके पास कुछ नहीं। इसके विपरीत तीनों छोटे भाई शराब, कबाब के साथ महंगी कारों पर सवार। तीनों के पास बैंक बैलेंस और शहरों में मकान या प्लाट। जिनमें बड़े भाई का कोई हिस्सा नहीं। बड़ा भाई को चौथे हिस्से की जमीन देकर अलग कर दिया गया। पिता ने अपने 3 अफसर बेटों के अहंकार में बड़े बेटे के साथ हुए अन्याय के बारे में तनिक भी नहीं सोचा। बड़े बेटे को अपने बच्चों को पढ़ाने और विवाह करने में अपने हिस्से की जमीन बेचनी पड़ गयी। जिसे भी उसी के अफसर भाइयों ने खरीद लिया। तीनों भाइयों ने गाँव और शहरों में अपने-अपने शानदार मकान बना लिए। जबकि उनका बड़ा भाई अभी भी पिता से मिले कच्चे घर में गुजरा करने को विवश है।
वर्तमान हालात :-------अब उनका पिता 88 वर्ष का हो चुका है और उसका पैर टूट गया। तीनों अफसरों की मेमसाब पत्नियां वृद्ध ससुर की सेवा करने को बिलकुल भी सहमत नहीं। बेटों को नौकरी से फुर्सत नहीं। खुद पिता अफसर बेटों के साथ शहरों में जाकर कमरे में कैद होने को तैयार नहीं। गाँव में पिता के अन्याय, गरीबी, जिम्मेदारी और मंहगाई की मार झेल रहा बड़ा बेटा खून की घूँट पीकर भी पिता की सेवा तो करना चाहता है, लेकिन इलाज और संसाधनों के लिए रुपये नहीं। तीनों बेटे अपनी मस्ती में मस्त हैं। उन्हें पिता की अब कोई जरूरत नहीं। गाँव के लोग तीनों अफसरों के कर्ज और उनके बड़े ओहदे के कारण सबकुछ जानकार भी चुप हैं।
सवाल :-
1-वृद्ध पिता क्या अपने बड़े बेटे के साथ किये अन्याय से मुक्त हो सकता है?
2-क्या वृद्ध-पिता अपने वर्तमान हालातों के लिए खुद जिम्मेदार नहीं?
3-वर्तमान में जो पिता अपने बेटों के साथ विभेद कर रहे हैं, कल को उनको भी यही सब सहना नहीं पड़ सकता है?
4-बड़े भाई के लिए रिश्तों और समाज की भूमिका और महत्ता क्या है?
5-इस प्रकार के हालात और अन्याय के शिकार व्यथित पक्षकार परिजनों को न्याय कैसे मिले?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'9875066111, 160417

Thursday, March 16, 2017

अपनी वृद्धावस्था की अभी से तैयारी कर लें, अन्यथा नयी पीढ़ी को निष्ठुर और संस्कारविहीन कहकर कोसने का कोई हक नहीं होगा।

*अपनी वृद्धावस्था की अभी से तैयारी कर लें, अन्यथा नयी पीढ़ी को निष्ठुर और संस्कारविहीन कहकर कोसने का कोई हक नहीं होगा।*
*सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'*

पहले जब शिक्षा और सरकारी नौकरी नहीं थी तो बहु-बेटे अपने माता-पिता और दादा-दादी सहित सभी वृद्ध या अस्वस्थ रिश्तेदारों की तीमारदारी और सेवा-सुश्रुषा करने में पीछे नहीं रहते थे। दुःखद और कड़वा सच कि जैसे-जैसे लोगों के पास धन, ओहदा और सम्पन्नता आ गयी, सेवा और संवेदना नदारद हो गयी। धर्मिकता और समाज सेवा का चोला ओढ़े रहने वाले भी निष्ठुर और निर्मोही हो रहे हैं। भावनाएं तथा संवेदनाएं मर रही हैं।

मैंने अनेकों बार इस दारुण पीड़ा को महसूस किया है। अपनी आँखों से देखा है, जब अपने आलीशान बंगलों और सुख-सुविधाओं के साथ-साथ मंदिरों, यज्ञों और भागवत कथाओं में हजारों-लाखों रुपये खर्च करने वाले या नया मंदिर बनवाने की पहल करने वाले लोगों के माता-पिता या उनकी बहन-भुआ वर्षों तक उचित उपचार और समुचित देखभाल के लिये तरसते हुए तथा तड़पते हुए बेमौत मर जाते हैं। मौत के बाद स्वादिष्ट भोजन और पकवान बनवा कर उनका नुक्ता (मृत्युभोज) किया जाता है। मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए गरुड़ पुराण का पाठ करवाकर स्थानीय बामणों को दान दिया जाता है। कार-जीप में दर्जनों रिश्तेदारों के साथ पहुंचकर गंगाजी में जाकर अस्थियां प्रवाहित करवाने की एवज में पंडाओं को दान-दक्षिणा दी जाती हैं। 

इन सारे क्रिया-कर्मों में जितना धन खर्चा जाता है, यदि वही धन, श्रम और समय, असमय और बेमौत मौत के शिकार मृतक के जीवन में उनकी सेवा तथा उपचार में खर्च किया जाये तो सम्भव है कि उनकी दर्दनाक मौत नहीं हो और अधिक सम्भावना है कि वे कुछ समय तक और स्वस्थ-ज़िंदा रह सकें।

जिन दादा-दादी और माता-पिता ने हमको निर्मित किया है, हमको परिवरिश दी, अभाव सहकर, कर्जा लेकर हमें शिक्षा दिलवाई और समर्थ बनाया उनकी अनदेखी करके, स्वनिर्मित भगवानों की पूजा या मंदिरों का निर्माण किस तरह से समाज और मानवता के उत्थान में सहायक होता होगा, मेरी समझ से परे है?

मुझे समझ में नहीं आता कि खुद को शिक्षित मानने वाले 21वीं सदी के विकसित मनुष्य कहलाने वाले हम लोग किस तरह के रिश्तों और कैसी धार्मिक संस्कृति को, किसलिए ढो रहे हैं? हम किन संस्कारों को नयी पीढ़ी को सम्प्रेषित कर रहे हैं? क्या हमारी भावनाएं और संवेदनाएं मर चुकी हैं या हमारे अवचेतन मन पर --*"स्वर्ग की आकांक्षा और नर्क का भय"* इस कदर काबिज है कि हमें केवल कपोल-कल्पित कथित धर्म-ग्रन्थ ही अपनी मुक्ति का मार्ग समझ में आते हैं? इन ग्रंथों में माता-पिता और दुखियों की सेवा के जो अनुदेश हैं, उनकी अनदेखी करते हुए हमें --*"नर्क का भय क्यों नहीं सताता?"*

जो लोग धर्म-ग्रंथों-मंदिरों के प्रचार को सामाजिक एकता के नाम पर स्वर्ग तथा राजनीति की सीढ़ी बनाने का आत्मघाती खेल, खेलने में व्यस्त हैं, उनके सभी कृत्यों पर, उनके अपने बेटा-बेटियों तथा पोता-पोतियों की पैनी नजर है। अपनी वृद्धावस्था की अभी से तैयारी कर लें, अन्यथा बाद में अपने आपको कोसते हुए और पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए तड़प-तड़प कर मरना पड़े तो नयी पीढ़ी को *निष्ठुर और संस्कारविहीन कहकर कोसने का कोई हक नहीं होगा।*
सेवासुत-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111, 16.03.17, 04.58

Wednesday, April 30, 2014

दिग्विजय सिंह का कबूलनामा, अमृता राय से हैं मेरे रिश्‍ते, करेंगे शादी

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने टीवी एंकर अमृता राय से रिश्‍ते की बात कबूल की है और दोनों शादी करने की तैयारी में हैं. दिग्विजय सिंह ने ट्वीट कर कहा है, 'मुझे यह स्‍वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि अमृता राय से मेरे रिश्‍ते हैं. अमृता ने अपने पति से तलाक के लिए केस फाइल कर दिया है.'

दिग्विजय आगे लिखते हैं, 'एक बार तलाक की प्रक्रिया पूरी हो जाए तो हम इस रिश्‍ते को औपचारिक रूप दे देंगे. लेकिन अपनी निजी जिंदगी में किसी तरह की दखल की मैं निंदा करता हूं.'  

राज्‍यसभा टीवी में एंकर अमृता ने भी अपने पति से अलग होने की बात कबूल ली है. उन्‍होंने ट्वीट किया, 'मैं अपने पति से अलग हो गई हूं और हमने तलाक के लिए कागजात दाखिल कर दिए हैं. उसके बाद मैंने दिग्विजय सिंह से शादी करने का फैसला किया है.'

कांग्रेस के सीनियर नेता का ट्वीट ऐसे समय आया है जब ट्विटर पर दिग्विजय सिंह और अमृता राय के रिश्‍ते को लेकर कई ट्वीट पोस्‍ट हो रहे हैं. ट्विट पर आज Amrita Rai और Diggy ट्रेंड कर रहे हैं.

ट्वीट के साथ दिग्विजय की अमृता के साथ कुछ निजी तस्‍वीरें भी शेयर की जा रही हैं. सोशल वेबसाइट फेसबुक पर भी इन दोनों की तस्‍वीरें मौजूद हैं.

अमृता का कम्‍प्‍यूटर हैक? हालांकि, अमृता ने आरोप लगाया है कि उनका ईमेल हैक कर लिया गया है. उन्‍होंने ट्वीट किया, 'मेरा ई-मेल/कम्‍प्‍यूटर हैक हो गया है और कंटेंट से छेड़छाड़ की गई है. भारत में ऐसा करना गंभीर अपराध और यह मेरी प्राइवेसी में दखल देना है. मैं इसकी कड़े शब्‍दों में निंदा करती हूं.'

43 साल की अमृता राय के पति आनंद प्रधान आईआईएमसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वहीं, 67 साल के दिग्विजय सिंह की पत्‍नी आशा सिंह का पिछले साल कैंसर से निधन हो गया था.

पूरे प्रकरण पर आनंद प्रधान की प्रतिक्रिया : इस पूरे प्रकरण पर सोशल साइट्स पर कई तरह की टिप्पणियां आ रही हैं. खुद आनंद प्रधान ने फेसबुक पर पोस्ट लिखकर अपनी बात रखीं. उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में यह लिखा-

एक बड़ी मुश्किल और तकलीफ से गुजर रहा हूँ. यह मेरे लिए परीक्षा की घडी है. मैं और अमृता लम्बे समय से अलग रह रहे हैं और परस्पर सहमति से तलाक के लिए आवेदन किया हुआ है. एक कानूनी प्रक्रिया है जो समय लेती है लेकिन हमारे बीच सम्बन्ध बहुत पहले से ही खत्म हो चुके हैं. अलग होने के बाद से अमृता अपने भविष्य के जीवन के बारे में कोई भी फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं उनका सम्मान करता हूँ. उन्हें भविष्य के जीवन के लिए मेरी शुभकामनाएं हैं.

मैं जानता हूँ कि मेरे बहुतेरे मित्र, शुभचिंतक, विद्यार्थी और सहकर्मी मेरे लिए उदास और दुखी हैं. लेकिन मुझे यह भी मालूम है कि वे मेरे साथ खड़े हैं. मुझे विश्वास है कि मैं इस मुश्किल से निकल आऊंगा. मुझे उम्मीद है कि आप सभी मेरी निजता (प्राइवेसी) का सम्मान करेंगे. शायद ऐसे ही मौकों पर दोस्त की पहचान होती है. उन्हें आभार कहना ज्यादती होगी.

लेकिन जो लोग स्त्री-पुरुष के संबंधों की बारीकियों और स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व को सामंती और पित्रसत्तात्मक सोच से बाहर देखने के लिए तैयार नहीं हैं, उसे संपत्ति और बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा नहीं मानते हैं और उसकी गरिमा का सम्मान नहीं करते, उनके लिए यह चटखारे लेने, मजाक उड़ाने, कीचड़ उछालने और निजी हमले करने का मौका है. लेकिन वे यही जानते हैं. उनकी सोच और राजनीति की यही सीमा है. उनसे इससे ज्यादा की अपेक्षा भी नहीं.


स्रोत : आज तक, आज तक वेब ब्‍यूरो [Edited By: रंजीत सिंह] | नई दिल्‍ली, 30 अप्रैल 2014

Saturday, April 19, 2014

पिता ही चलना सिखाता है, हम भूल जाते हैं

अम्‍बर बाजपेयी 

फादर्स डे पर विशेष : जून के तीसरे रविवार को मनाया जाने वाला फादर्स-डे क्या वाकई पिता-पुत्र के रिश्तों में सेतु का काम करता है? ये एक बड़ा प्रश्न है, जिसका उत्तर हम सिर्फ अपनी अंतरात्मा में झांककर ही देख सकते हैं. आज कितने ही परिवार ऐसे होंगे, जिनमें पिता-पुत्र के बीच किसी न किसी बात को लेकर विवाद चल रहा होगा. कई पिता ऐसे होंगे जो अपने बेटे से प्रताड़ित हो रहे होंगे और कई ऐसे होंगे जो बीती रात को भूखे पेट सोये होंगे. उनके लिए फादर्स-डे कितनी महत्ता रखता है, शायद इसका अंदाज़ा हम और आप नहीं लगा सकते. पत्र-पत्रिकाओं में आये दिन प्रकाशित हो रही दिल दहला देने वाली ख़बरें- 'पुत्र ने पिता को पीटा', 'संपत्ति के लालच में पिता की हत्या', या 'बेटों ने बाप को घर से निकाला' को लोग पढ़ते हैं, जाहिर है कि ये बातें उनके जेहन को झकझोरने के लिए मजबूर भी करती होंगी, लेकिन उसके वावजूद भी वे अपने आप को बदलना नहीं चाहते.

आखिर ऐसे लोग क्यों इतनी जल्दी भूल जाते हैं कि वो पिता ही है, जिसने हमे उंगली पकड़कर चलना सिखाया, अपना नाम दिया, प्यार दिया और दिया समाज में सर उठाके जीने का हक. हम ये क्यों याद नहीं रखना चाहते कि जीवन में मां के बाद पिता ही पूजनीय है, फिर भी उसके हम साथ दुर्व्यवहार करते हैं क्यों? एक पिता अपने पुत्र को जन्म देकर उनका पालन पोषण करता है कि बेटे बड़े होकर उनका सहारा बनेंगे, पर बेटे बड़े होकर उनके साथ दुश्मनों से बदतर सलूक करते हैं, क्यों? शायद किसी के पास भी इस बात का उत्तर नहीं होगा.

आज पूरा देश अमेरिकी महिला सोनारा लुई स्मार्ट द्वारा शुरू किये गया फादर्स-डे मना रहा है, वो पर्व जो पिता पुत्र के बीच बढ़ती खाई को भरने का काम कर सकता है. अगर मेरी बात ऐसे लोगों के कानों तक पहुंचे जो अपने पिता कि भावनाओं का निरादर कर रहे हैं, तो आज उनके पास अच्छा मौका है, हो सकता है फादर्स-डे उनके लिए खुदा कि नियामत बन जाये और वो रिश्ता जिसमे खटास बढ़ रही है, उसी तरह हो जाये, जैसा कि पहले था. वही पापा-पापा कहकर उनकी छाती से लग जाना और दुनिया के सारे दुखों से निजात पा लेना. हालाँकि कुछ लोग जरूर ये सोचेंगे की अब देर हो चुकी है, तो ऐसे लोगों को ये ध्यान रखना चाहिए कि एक बाप अपने बेटे की सारी गुस्ताखियाँ माफ़ कर सकता है, बशर्ते बेटे को गलती का एहसास हो. आज अच्छा मौका है, जो गलत राह पर जा रहे हैं, उनके सही रास्ते पर आने का. आइये आज फादर्स-डे के सुअवसर पर हम सभी पिता के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने और उनके सपने साकार करने की कसम खाएं यही एक पुत्र की तरफ से पिता को सच्ची शुभकामना होगी.

लेखक अम्‍बर बाजपेयी आज समाज चंडीगढ़ में उपसंपादक हैं. Sunday, 19 June 2011 16:19

स्त्रोत : भड़ास४मीडिया 

Friday, April 18, 2014

रिश्तों के चक्रव्यूह में पिता-पुत्र

छोटा था, तो पिताजी के सामने जाने की हिम्मत नहीं होती थी। वह जिस कमरे में बैठते, उस कमरे से बचता था। पिताजी से बात कहनी होती, तो मां का सहारा लेता। वह हमारे बीच में डाकिये की भूमिका निभाती और मेरे लिए वकील बन जाती। उनसे जिरह करने का साहस मेरे फरिश्तों में भी नहीं था। यही हाल मेरे दोस्तों का भी था। पिताजी मुझसे बेहद प्यार करते थे। लेकिन यह कभी उन्होंने कहा नहीं और न ही मैंने यह कभी जानने की कोशिश की। यह रिश्ता दोनों तरफ से मूक था। इसमें एक अजीब किस्म की अजनबियत थी। वह बोलते कम, हुक्म ज्यादा सुनाते थे। मेरी जिंदगी के सारे फैसले वही करते। मानने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। लेकिन मेरे जवान होते ही दुनिया बदलने लगी। पिता दोस्त बन गए। उनके सामने बैठना, उनसे गप्पें मारना सामान्य-सी बात हो गई। हम स्कूल की फीस मांगने में झिझकते थे, आज के बच्चे डैड से रिलेशनशिप पर बात करने से नहीं सकुचाते। पीढ़ी बदल गई, रिश्ते बदल गए। हमारी पीढ़ी में रिश्ते समूह से तय और निर्धारित होते थे। परिवार बड़ा था, व्यक्ति छोटा। रिश्तों में बराबरी नहीं, एक हायरार्की थी।

ऐसे में जब मैंने पिछले दिनों जिंदगी न मिलेगी दुबारा फिल्म देखी, तो रिश्तों का एक नया संसार दिखा। समूह नहीं, व्यक्ति दिखा। न परिवार बड़ा, और न व्यक्ति छोटा। दोनों बराबर। व्यक्ति परिवार के सामने सरेंडर नहीं करता। बेटा और बाप, दोनों को पता है कि जिंदगी सिर्फ एक बार ही मिलती है। और उसे अपने तरीके से ही जीने में मजा है। फरहान खान पूरी फिल्म में अपने पिता से मिलने की ख्वाहिश लिए अपने दोस्तों के साथ स्पेन जाता है। उसके पिता और उसकी मां के बीच जवानी के दिनों में एक रिश्ता बन गया था। उस रिश्ते ने फरहान को जन्म दिया। लेकिन पिता नसीरुद्दीन शाह शादी के लिए तैयार नहीं थे, जबकि मां को प्रेमी के साथ पति भी चाहिए था। नसीर ने शादी पर अपनी ख्वाहिशों को तरजीह दी। उन्हें पेंटिंग्स बनानी थी। दुनिया देखनी थी। अपने हिसाब से जिंदगी का मजा लेना था। फरहान उनकी जिंदगी को सीमित कर रहा था। उनके सपनों को धूमिल कर रहा था। लिहाजा वह अपने रास्ते पर चल पड़े और घूमते-घूमते स्पेन जा पहुंचे। इस दौरान फरहान की मां ने एक दूसरे शख्स से शादी कर ली। फरहान उन्हें अपना बाप मानता रहा, लेकिन जिस दिन उसे असलियत पता चली, वह अपने असली बाप से मिलने को मचल उठा। मां ने समझाया, पर वह नहीं माना।

नसीर अपनी दुनिया में मस्त थे। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि बेटा कैसा है। एक पल के लिए भी वह बेटे के रिश्ते में नहीं बंधे। वह बड़े पेंटर हो गए। उनकी अपनी अलग दुनिया थी। फरहान की तड़प जिंदा रही। वह स्पेन में अपने पिता को खोजता है। फिल्म चलती रहती है और उसकी तलाश भी। आखिरकार वह अपने पिता से मिलता है। दोनों अकेले। सिर्फ नसीर और फरहान। भावनाओं का कोई ज्वार नहीं। आंसुओं का कोई रेला नहीं। फरहान जानने को बेताब कि क्या कभी उसके पिता को उसकी याद आई? कभी उससे मिलने को उनका दिल तड़पा? नसीर बहुत संतुलित। स्थिर। शांत। कोई नाटकीयता नहीं। कहा, तुम मुझे सलमान कहके पुकारो। वह आगे बोले, तुम्हारी मां शादी करना चाहती थी और मैं अपने सपनों को छूना चाहता था। दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं बनता था। फरहान थोड़ा निराश होता है। भावुक भी। लेकिन वह भी स्थिर है। शांत। कोई नाटकीयता नहीं। नसीर फिर कहते हैं, न मैं तब तुम्हारी जिम्मेदारी लेना चाहता था और न आज। नसीर ने एक वाक्य में रिश्ता बनने से पहले ही रिश्ता तोड़ दिया। हिंदी फिल्मों की तरह फरहान की आंखों से आंसू नहीं निकले। न उसने अपने पिता को कोसा। न कोई गिला, न शिकायत। न अमिताभ बच्चन की तरह नाजायज होने का दर्द। वह बाहर चला आता है। दोस्तों से मिलता है। सब कुछ सामान्य। वे सड़क किनारे रात गुजारते हैं। फरहान को नींद नहीं आती। रितिक रोशन सुबह उठता है। फरहान को देखता है। फरहान उससे कहता है कि मुझे सलमान के पास नहीं जाना चाहिए था। यानी उसे अपने पिता से मिलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। वह आहत है, लेकिन कंप्लेन नहीं करता। न अपने पिता को कोसता है। वह खुद से नाराज जरूर है, लेकिन अपने पिता की ‘इंडिविजुअलिटी’ को वह स्पेस देता है। उनके फैसले की इज्जत करता है।

पिता-पुत्र का यह रिश्ता हिंदी फिल्मों के लिए बिल्कुल नया है। जायज और नाजायज से परे। अमिताभ बच्चन की दर्जनों ऐसी फिल्में हैं, जहां नायक शुरू से अंत तक अपने को जायज ठहराने की जद्दोजहद में जीता है। त्रिशूल के अमिताभ और संजीव कुमार का संबंध। अमिताभ की नजर में उसके पिता ने उसकी मां के साथ धोखा किया। पिता को सजा मिलनी चाहिए। अमिताभ बदला लेने के लिए संजीव कुमार का कारोबार चौपट कर देता है। अमिताभ कुंठित बेटा है। रिश्तों के चक्रव्यूह में पिता की मजबूरियों और उनके निजत्व का उसके लिए कोई मतलब नहीं है। समाज बड़ा है, रिश्ते बड़े हैं। व्यक्ति और उसकी ख्वाहिशें छोटी हैं। फरहान कुंठित नहीं है। उसे अफसोस बस इतना है कि उसने क्यों किसी के प्राइवेट स्पेस में दखल दिया।

उसके मां-बाप को अपनी तरह से जिंदगी जीने का हक है और उसे अपनी तरह से। मां-बाप के बीच के रिश्ते को उसे नए सिरे से डिफाइन करने हक नहीं है, न ही उसे अपने को अपने पिता पर थोपने का अधिकार है। वह उनसे पूछता जरूर है, वह उसे अपनाएंगे या नहीं, बाप-बेटे के रिश्ते का नाम देंगे या नहीं? लेकिन यह एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से संवाद है। पुरानी दुनिया में रिश्ते ‘डिफाइन’ नहीं होते थे, वे ‘डिफाइंड’ थे। उन पर सवाल नहीं होता था। उन रिश्तों को तोड़ना अपराध था। त्रिशूल का अमिताभ यह सहन नहीं कर सकता कि उसका पिता उसकी मां को छोड़ दे। मैंने अपने पिता से कभी सवाल नहीं किया कि उन्होंने मेरी जिंदगी का कोई फैसला क्यों ऐसे किया? मेरे रिश्ते में सवाल पूछने का अधिकार नहीं था। वह ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ था। नए समाज में कुछ भी ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ नहीं है। न जिंदगी और न रिश्ते। पिता और बेटा, दोनों की अपनी-अपनी जिंदगी है। उसे अपने हिसाब से जीना है। अब किसी बेटे को अपने बाप के सामने जाने से डर नहीं लगता। फरहान और जोया, रिश्तों का नया संसार दिखाने के लिए शुक्रिया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

स्त्रोत : आशुतोष, मैनेजिंग एडीटर, आईबीएन-7, "रिश्तों के चक्रव्यूह में पिता-पुत्र" First Published:24-07-11 10:02 PM